रविवार, 28 अगस्त 2011

अन्ना हजारे बनाम भारतीय लोकतंत्र



गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने देश में आपाद मस्तक व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक ऐसी लड़ाई छेड़ रखी है, जिसमें प्रायः पूरे देश का आम आदमी उनके साथ है, किंतु देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रायः सारे कर्णधार उनके खिलाफ हैं। वास्तव में आज भारत का संविधान, भारतीय संसद और पूरा लोकतंत्र कुछ निहित स्वार्थी तत्वों का बंधक बनगया है। इन्होंने आम आदमी के अधिकारों का ठेका भी अपनी जेब में रख छोड़ा है, जिससे इनके गुट के बाहर के किसी आदमी को आम आदमी की बात उठाने का अधिकार भी नहीं रह गया है। सत्ता के दलाल बुद्धिजीवी, लेखक व पत्रकार उस आवाज को ही लोकतंत्र विरोधी, फासिस्ट व जिहादी सिद्ध करने में लगे हैं, जो इस बंधक बने लोकतंत्र को मुक्त कराने की चाहत रखता है।

अन्ना हजारे आज शायद दुनिया का सर्वाधिक चर्चित नाम है। 74 वर्षीय यह वृद्ध यौवन की अदम्य अंगड़ाई का प्रतीक बन गया है। अन्ना देश के जनजन में ऐसे व्याप्त हो गये हैं कि हर व्यक्ति अपने को अन्ना कहने लगा है। ‘मैं अन्ना हूॅं‘ छपी टोपियां और कमीजें युवाओं की ‘फैशन स्टेटमेंट‘ बन गयीं। अन्ना की रंगीन तस्वीरें किशोरियों के नाखूनों तक पर सज गयीं। ऐसी दीवानगी अब से पहले शायद ही किसी को लेकर उमड़ी हो। इस देश की हठीली संसद और अपने ही अहंकार मे डूबी जिद्दी सरकार को अन्ना की इस तूफानी लहर के आगे झुकना पड़ा। यद्यपि अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि इसके साथ ही आम जनता जीत गयी है और भ्रष्टाचारियों की संरक्षक सरकार और राजनेताओं की फौज पराजित हो गयी है, फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उनमें पहली बार देश की आम जनता का एक खौफ पैदा हुआ है। लेकिन स्वयं अन्ना और उनके साथ खड़े युवाओं तथा देश के आम लोगों को यह समझना होगा कि देश की सत्ता पर कुंडली मारे बैठा राजनीतिक वर्ग मात्र अनशन और शांतिपूर्ण प्रतीकात्मक विरोधों से झुकने वाला नहीं है। सत्ताधारी वर्ग सत्तामद में इतने जड़ हो चुके हैं कि उन्हें अनुनय विनय की भाषा समझ में ही नहीं आती। पुरानी कहावत है कि ‘भय बिन होइ न प्रीति‘। लोगों को रामायण की उस पुराण कथा का स्मरण होगा, जब श्रीराम ने जलाधिपति समुद्र से लंका जाने का मार्ग देने की प्रार्थना करते हुए उसके तट पर तीन दिन निराहार व्रत करते गुजारे थे, लेकिन अपनी विराट सत्ता के अहंकार में डूबे समुद्र ने उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। इसके बाद राम ने अनुनय-विनय का व्रत छोड़कर जब शस्त्र शक्ति का संधान किया, तो भागा भागा आया और राम को तरीका सुझाने लगा कि वह कैसे स्वयं लंका जाने का मार्ग बना सकते हैं, जिसमें वह स्वयं भी सहायता के लिए तत्पर रहेगा। इस कथा का संदेश साफ है कि सत्ताधारी वर्ग को जब तक अपनी सत्ता जाने का भ्य नहीं उत्पन्न होता, तब तक वह किसी के भी आगे झुकने के लिए तैयार नहीं होता। अन्ना को भी इस कथा से सबक लेना चाहिए। बहुत हो गया अनशन। अब शक्ति प्रदर्शन का समय आ गया है। अन्ना को यदि अपनी मांग मनवानी है और उन्हें पूरे देश के समर्थन का विश्वास है, तो उन्हें अब संवेदना जगाने के बजाए चेतना जगाने का काम शुरू करना चाहिए। लेकिन यह काम अराजनीतिक पद्धति से नहीं हो सकता। इसके लिए राजनीति में उतरना होगा। वे स्वयं यदि कोई राजनीतिक पार्टी बनाकर यह लड़ाई नहीं लड़ सकते, तो उन्हें ऐसी राजनीतिक पार्टियों का मंच बनाना चाहिए, जो उनकी नीतियों को स्वीकार करती हों या जिनमें तथाकथित दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने का जज्बा हो। उन्हें अब इस नाटकीय सिद्धांत की ओट नहीं लेनी चाहिए कि वे न तो किसी पार्टी के खिलाफ हैं और न वह किसी सरकार को गिराना चाहते हैं।

वह अहिंसा में विश्वास रखते हैं, यह तो निश्चय ही अच्छी बात है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्था परिवर्तन के लिए हिंसा की कोई जरूरत भी नहीं है। यहां तो केवल ऐसी वैचारिक क्रांति की जरूरत है, जिसके साथ देश की आम जनता जुड़ सके। किसी अराजनीतिक क्रांति द्वारा व्यवस्था परिवर्तन का सपना कभी पूरा नहीं किया जा सकता। अन्ना को समझना चाहिए कि देश के तमाम भ्रष्ट लोगों ने प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों तरीके अपनाकर संसद, संविधान तथा न्याय व्यवस्था तीनों पर अपना कब्जा जमा रखा है। देश की वर्तमान संसद व देश का संविधान ही उनका रक्षा कवच बना हुआ है, इसलिए वह अपने इस किले में किसी को भी सेंध लगाने की कभी इजाजत नहीं देंगे।

इस देश में तमाम बुद्धिजीवी, पत्रकार व लेखक प्रायः सत्ता की दलाली में अपनी सारी मेधा खर्च करने में लगे रहते हैं। वे संविधान, कानून व परंपरा की ऐसी व्याख्या करेंगे कि नायक खलनायक और खलनायक नायक बन जाए। कांग्रेस के, विशेषकर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के एक चहेते बुद्धिजीवी व पत्रकार हैं दिलीप पडगांवकर, वह अन्ना को फासिस्ट और जिहादियों की श्रृंखला में सिद्ध करने में लगे हैं। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित अपने एक आलेख में उन्होंने अन्ना को पोप, कम्युनिस्ट कमांडरों, फासिस्ट नेताओं व जिहादी सिद्धांतकारों की पंक्ति में गिनते हुए कहा कि वह भी अपने ही विचारों को सर्वोच्च व अकाट्य समझते हैं। वे उसी सिद्धांत को मानते हैं, जिसके प्रमाण अकेले वहीं हैं। उन्होंने अन्ना के विचारों की खिल्ली उड़ाते हुए लिखा है कि वह अपनी ‘अंतरात्मा‘ की आवाज पर लक्ष्य पाना चाहते हैं। वह उसे संसद- जो जनता की इच्छाओं का प्रतिरूप है- और संविधान (जो लोकतंत्र की कसौटी है) के भी उपर मानते हैं।

मतलब यह कि क्या सही है क्या गलत यह वे ही तय करेंगे। अकेले वे ही जानते हैं कि सत्य क्या है और जनता को किस लक्ष्य तक पहुंचना है। उस लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग अकेला वही है जिसे उन्होंने तैयार किया है। दूसरे शब्दों में भ्रष्टाचार दूर करने का उनका ही एक तरीका है, जिसे वे ही लागू करने के अधिकारी हैं। अब इस तरह वह क्या कहना चाहते हैं, इसे कोई भी समझ सकता है। वह हिंसक नक्सली नेताओं और जिहादियों से अन्ना और उनके समर्थकों को अलग नहीं मानते, क्योंकि वे भी संविधान और संसद के तौर-तरीकों को नहीं मानते और अपने मन की व्यवस्था लागू करना चाहते हैं।

उन्होंने अपनी बात की पुष्टि के लिए बाबा साहेब अम्बेडकर के एक वक्तव्य को भी उद्धृत किया है, जो उन्होंने संविधान सभा की बैठक में नवंबर 1949 में दिया था। उस समय तक संविधान निर्माण का कार्य पूरा हो चुका था। अंबेडकर ने उस वक्तव्य में कहा था कि यदि भारत को अपना लोकतंत्र बनाये रखना है, केवल बाहरी ढांचे के रूप में नहीं, बल्कि वास्तव में, तो इसके लिए सबसे पहले यह करना होगा कि देश को जो भी सामाजिक, आर्थिक लक्ष्य प्राप्त करने हैं, उसके लिए केवल संवैधानिक तरीके अपनाएं जाएं। इसका मतलब यह है कि अब हमें क्रांति यानी धरना-प्रदर्शन-आंदोलन आदि के तौर-तरीकों को छोड़ना होगा (वी मस्ट एबैंडन द ब्लडी मेथड्स ऑफ रिवोल्यूशन)। उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि हमें नागरिक अवज्ञा (सिविल डिस ओबिडियेंस) असहयोग (नॉन कोऑपरेशन) तथा सत्याग्रह जैसे तरीकों का परित्याग करना होगा। जहां संवैधानिक तौर तरीकों के रास्ते खुले हों, वहां इनको इस्तेमाल करने का कोई औचित्य नहीं है। ये तौर तरीके और कुछ नहीं, बल्कि अराजकता पैदा करने के साधन (ग्रामर ऑफ एनार्की) हैं, इसलिए इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, उतना ही अच्छा होगा। इसके आगे अम्बेडकर ने जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को उद्धृत किया, जिसे उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए दिया था। मिल ने कहा था कि जो लोग लोकतंत्र की रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें अपनी स्वतंत्रता किसी महापुरुष के आगे भी नहीं समर्पित करना चाहिए (चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो) और न उसे इसका अधिकार देना चाहिए कि वह उनकी संस्थाओं को उलट पलट कर दे। अम्बेडकर ने इस चेतावनी को भारत के संदर्भ में विशेष रूप से रेखांकित करते हुए कहा था कि भारत एक ऐसा देश है, जहां भक्ति की प्रधानता है। यहां की राजनीति में भी व्यक्ति पूजा और भक्ति मार्ग की जैसी प्रधानता व प्रभाव है, वैसा किसी अन्य देश में नहीं है। उन्होंने सावधान किया था कि अपने देश में भक्ति या व्यक्ति पूजा का ऐसा प्रभाव है कि उससे लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन हो सकता है और तानाशाही उसका स्थान ले सकती है।

अम्बेडकर के उपर्युक्त वक्तव्य से असहमति नहीं व्यक्त की जा सकती, किंतु जनाब पडगांवकर साहब इस उद्धरण का जिस संदर्भ में इस्तेमाल कर रहे हैं, वह निश्चय ही उनकी बदनीयती का परिचायक है। वह अम्बेडकर के कथन का इस्तेमाल करके अन्ना हजारे को देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं। यह वही पडगांवकर साहब हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री ने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों से बातचीत करके अपनी रिपोर्ट देने के लिए नियुक्त कर रखा है। ये वही पडगांवकर साहब हैं, जो पाकिस्तानी आई.एस.आई. के अमेरिका स्थित एजेंट गुलाम अहमद फई के भी दोस्त हैं और भारत के प्रधानमंत्री के भी। ये कश्मीरी अलगाववादियों के आंदोलन और विरोध का तो समर्थन करते हैं और भारत सरकार को भी सलाह देते हैं कि उनकी मांगें मानी जानी चाहिए और उनके प्रति उदारता बरतनी चाहिए, लेकिन अन्ना हजारे को यह फासिस्ट और आतंकी सिद्ध करने में लगे हैं। उन्हें नेहरू परिवार की व्यक्ति पूजा का खतरा नहीं दिखयी देता, किंतु अन्ना को मिल रहे जनसमर्थन से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा नजर आ रहा है। उनके अनुसार आज तो अनशन करके जान देने की धमकी देकर अन्ना हजारे अपने विचारों का लोकपाल बिल पास करना चाहते हैं, कल कोई ‘खाप-न्याय‘ (रिवायत के नाम पर) को लागू करने के लिए कानून बनाने को कहने लगे या किसी पूजा स्थल को गिराने की बात करने लगे या पर्यावरण के नाम पर कल कारखानों व परमाणु रियेक्टरों का निर्माण रोकने के लिए अनशन करने लगे, तो क्या होगा। अब इन बातों से उनके कुतर्कों का कोई भी अनुमान लगा सकता है।

निश्चय ही किसी भी व्यक्ति या समूह को संसदीय या लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपहरण की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन यहां अहम सवाल यह है कि इस देश के संविधान, संसद व लोकतंत्र का अपहरण किसने कर रखा है। व्यक्ति पूजा किसकी हो रही है। भक्ति मार्ग का अनुसरण सत्तारूढ़ दल कर रहा है या कोई और।

अम्बेडकर ने जो चेतावनी दी थी, वह आदर्श संसदीय स्थिति के लिए थी। आज का सच तो यह है कि देश की संसदीय व्यवस्था का अपहरण हो चुका है। आज की असली समस्या देश के संविधान, संसद तथा लोकतंत्र को अपहर्ताओं के चंगुल से मुक्त कराने की है। आज देश की सबसे बड़ी पार्टी सबसे अधिक भक्तिमार्गी है। यहां उसके एक सर्वोच्च देवता हैं, उनका परिवार है और उनके गणधर, दरबारियों का दल है। बाकी सब कीर्तनिया हैं, जो नाम जप और आरती-भोग में लगे रहते हैं और नित्य प्रसाद की आकांक्षा में मंदिर के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं।

इन पंक्तियों के आपके पास पहुंचने तक हो सकता है कि अन्ना हजारे का 12 दिनों से चला आ रहा अनशन समाप्त हो गया रहे। शायद वह संसद की अपील मान लें। वैसे भी यह अनशन अब उन्हें तोड़ ही देना चाहिए, क्योंकि इससे जनशक्ति के नवजागरण का जितना काम हो सकता था, हो गया है। अब इसके बाद उन्हें स्वस्थ होकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई शुरू करनी चाहिए। वह लड़ाई निश्चय ही लंबी होगी, लेकिन उसके लिए अब जमीन तैयार हो चुकी है। देश में वास्तविक जनसापेक्ष लोकतंत्र की स्थापना करनी है, तो हमें नया संविधान और नई राजनीतिक प्रणाली विकसित करनी होगी। इसके लिए हमें ब्रिटिश उत्तराधिकार के बोझ से बाहर निकलकर अपनी जनकेंद्रित व्यवस्था लागू करनी होगी।

28/08/2011

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

व्यक्ति पूजा शायद हमारी जन्मघुट्टी में पिलाया जाता रहा है और इसी का परिणाम वंशवाद भी है। क्या यह परम्परा छूट पाएगी। रही अन्ना जी की बात, तो शायद यह भी एक्छलावा है कि उनकी बात मान ली गई है। आखिर स्टॆंडिंग कमेटी को मामला सौंपने का मतलब ठंडे बस्ते में डालना ही तो है ॥

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

उम्दा लेख...एकदम सारगर्भित...